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परिचय |
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एक दृष्टान्त दिया गया है । वही दृष्टान्त श्रीमद् राजचंद्रकी वैराग्य वृत्तिका निश्चय करनेके लिए भी बहुत उपयोगी है । वह दृष्टान्त यह है
" जब यह बात सिद्ध करनेके लिए झगड़ा उठा कि भिन्न भिन्न धर्मोंके उपदेशकोंमें अहिंसाको वास्तविक पुष्ट करनेवाले कौन हैं तब इस बातका न्याय कराने के लिए लोग राजसभामें आये । उस समय राजाने उन सबकी परीक्षा करनेके लिए उनसे एक समस्या कह सुनाई । वह समस्या यह थी -
" पुरो भ्रमंतीइवि अंगणाए सकज्जलं दिठ्ठिजुयं नव त्ति”
इस पर भिन्न भिन्न उपदेशकोंने भिन्न भिन्न प्रकारकी कवितायें कीं । किसीने यह भाव बतलाया कि “हमारी दृष्टि स्त्रीके दूसरे अवयवों पर थी, इस कारण उसकी काजलवाली आँखोंको हम न देख सके । " दूसरे किसीने किसी अन्य अवयव पर दृष्टि रहनेको उन आँखोंके न देखे जानेका कारण बतलाया । आखिर में जैन साधुने जो उसकी पूर्ति की उसका यह भाव था - " हमारा मन त्रस तथा स्थावर जीवोंकी रक्षामें तत्पर था, हमारी दृष्टि ईर्यासमितिके पालनमें लगी हुई थी, इस कारण काजल लगी हुई आँखोंको हम देख नहीं सके ।" यह सुन कर राजाने अपने फैसले में कहा - " वास्तवमें अहिंसा के पुष्ट करनेवाले जैनसाधु ही हैं ।" इस दृष्टान्तसे सिद्ध यह करनेका है कि जिसका लक्ष्य जिस विषयकी ओर होता है उसके मुँहसे स्वाभाविक वैसे ही उद्गार निकलते हैं । इसी प्रकार श्रीमद् राजचंद्रने भी 'कंकर' 'रंगकी- पिचकारी' आदि विषयों पर अवधानके समय शीघ्र कविता करते हुए अपनी खाभाविक वृत्तिको वैराग्यकी ओर झुकती हुई बतलाई है । जिनने विज्ञानका
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