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श्रीमद् राजचन्द्र
नथी सारी मारी चटक सउ शिक्षा कथनमां,
उरे धारी जो जो विनय अरजी आ मथनमां ॥ अर्थात्--यह सुन्दर पिचकारी सूचित करती है कि मनमें सोचोंसमझो तो जान पड़ेगा कि मेरी सब माया, सब चटक-मटक झूठी है। मेरी विनय-पूर्वक यह प्रार्थना है कि हृदयमें विचार कर देखो तो तुम्हें सब शिक्षाओंका सार भी यही जान पड़ेगा।
उक्त कवितायें प्रायः वैराग्य पर ही लिखी गई हैं । पर इससे सर्वथा यह न समझना चाहिए कि वैराग्य-विषय पर कविता करनेवाला मनुष्य वैरागी ही होता है। बहुतसे ऐसे कवि भी हुए हैं जो स्वयं शृंगारको अधिक पसन्द करने पर भी वैराग्य पर कविता करते थे। परंतु सूक्ष्म-दृष्टिसे देखने पर इतना तो अवश्य जान पड़ेगा कि कविका जो खास प्यारा विषय होता है उसकी कुछ-न-कुछ बातें दृष्टान्त वगैरहमें आये बिना नहीं रहती। इसी लिए यह कहा गया है कि श्रीमद् राजचंद्र जन्म-वैरागी थे । जरा विचार करनेसे पाठक भी इस बात पर विश्वास कर सकेंगे। पाठकोंको जानना चाहिए कि अवधान करते समय जब उनसे कविता या पादपूर्ति करने के लिए कहा जाता तब उसी समय-बिना कुछ विलम्ब किये- उन्हें कविता कर देनी पड़ती थी। मतलब यह कि उस समय उन्हें विचारके लिए कुछ भी समय न मिलता था। ऐसे प्रसंगों पर जो एक साधारण वस्तुको लेकर कविता लिखनेका उदाहरण दिया गया है उस परसे यह सहज ही विचार उठता है कि वे कवितायें वैराग्य पर ही क्यों की गईं, शंगार या अन्य किसी विषय पर क्यों न की गई ? मनुष्यकी वृत्तिकी परीक्षा करनेका 'कुमारपाल-प्रबन्ध में
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