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परिचय ।
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वंध्य-सुता वधावी' इस पदकी समस्या पूर्ति करनेके लिए कहा गया । श्रीमद् राजचंद्रने उसी समय इस पदकी पूर्ति यों की
संसारमा मन अरे क्यम मोह पामे ? वैराग्यमां झट पड्ये गति एज जामे । माया अहो गणि लहे दिल आप आवी,
आकाश-पुष्प थकि वन्ध्यसुता वधावी ॥ अर्थात्-हे मन, तू संसारमें किस लिए मोह करता है ? जरा विचार कर देख तो तुझे जान पड़ेगा कि यह माया आकाश-पुष्पों द्वारा बंध्या स्त्रीकी पुत्रीको बधानेकी जैसी कल्पना है-कुछ वस्तु नहीं हैं-झूठी है । और वैराग्यमें लगनेसे तुझे इस बातकी और भी अधिक दृढ़ प्रतीति हो सकेगी।
इसी प्रकार एक दूसरे प्रसंग पर 'कंकर' को लक्ष्य करके कविता बनाने के लिए उनसे कहा गया । उन्होंने तब यह दोहा बनाया
एम सूचवे कांकरो, दिल खोलीने देख ।
मनखा केरा मुजसमा, बिना धर्मथी लेख । अर्थात्-कंकर यह बात सूचित करता है कि मन खोल कर देखो, वे मनुष्य मेरे सदृश हैं जो धर्म-रहित हैं। अन्य एक प्रसंग पर उन्होंने 'रंगनी पिचकारी' इस वाक्य पर शीघ्रताके साथ कविता की थी
बनावी छे केवी सुघड़ पिचकारी सुचवती, बधी जूठी माया मनन कर एवू मनवती ।
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