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श्रीमद् राजचन्द्रप्रतीतिसे यह ज्ञान हो जायगा कि आत्माका अस्तित्व त्रिकाल नित्य है । अर्थात् इस बात पर विश्वास करनेके लिए एक प्रबल प्रमाण मिल जाता है कि पुनर्जन्म है।
जन्म-वैराग्य । ___ श्रीमद् राजचंद्रके लेखोंका संग्रह जब तक नहीं छपा था उसके पहले प्रोफेसर ठाकुरने इन लेखोंको इस लिए पढ़ा था कि वे अँगरेजीमें उनका एक जीवन-चरित्र लिखें । उस समय उन्होंने एक सज्जनको लिखा था कि "श्रीमद् राजचंद्र जन्मसे ही वैरागी थे”। प्रोफेसर महाशयके इस कथनके अनुसार वे जन्म-वैरागी थे या नहीं, इस बातकी वास्तविकता तो वे ही लोग जान सकते हैं जिन्हें श्रीमद् राजचंद्रका अधिक परिचय रहा है। परंतु प्रोफेसर महाशयके पत्रकी सत्यता सिद्ध करने लिए श्रीमद् राजचंद्रके जन्मसे लेकर मृत्यु-पर्यन्तके विचारोंका अवलोकन करना पर्याप्त होगा। यहाँ पर भी ऐसे एक-दो प्रकरणोंका उल्लेख करना आवश्यक जान पड़ता है कि जिससे पाठकोंको भी इस विषयका साधारण आभास हो जाये ।
राजचंद्रने भावनाबोधकी प्रस्तावनाका पहला वाक्य यों लिखा है कि "चाहे जैसे तुच्छ विषयोंमें फँसे रहने पर भी उज्ज्वल-शुद्ध-आत्माके स्वाभाविक वेगका झुकाव वैराग्यकी ओर ही होता है।" अब देखना यह है कि निर्जीव विषयोंमें प्रवृत्ति होने पर भी श्रीमद् राजचंद्रका वैराग्यकी
ओर झुकाव था या नहीं। वे जब अवधान करते और अवधानके समयमें ही उन्हें किसी भी विषय पर शीघ्र कविता कर देनेके लिए कह दिया जाता तब वे उसी समय उस विषय पर कविता कर दिया कर देते थे । जब वे सोलह वर्षके थे तब ऐसे ही एक प्रसंग पर उन्हें 'आकाश-पुष्प थकि
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