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परिचय |
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“कई महीनोंसे मेरी इच्छा निर्ग्रन्थताकी ओर झुक रही है; परन्तु किंतनी ही सांसारिक उपाधियोंके कारण वह अभिलाषा पूरी होती नहीं जान पड़ती । तब भी यह तो निश्चित है कि उसके प्रत्यक्ष लाभसे सत्पदमोक्ष की प्राप्ति - आत्म-स्वरूपकी प्राप्ति होती है । और उसके लिए उम्र या वेशकी कोई विशेष अपेक्षा नहीं रहती ।"
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'श्रीमद् राजचंद्र' के सम्पूर्ण पढ़ जानेसे जान पड़ेगा कि उनकी आन्तरङ्गिक इच्छा तो संसार - परिग्रहके त्याग करने की ही थी; परन्तु संसारपरित्याग करना उन्होंने तब ही उचित समझा था जब कि उनका वह त्याग लोकोपकारार्थ हो सके । उनकी इन वास्तविक भावनाओंका ठीक ठीक पता तब ही चल सकता है जब उनके विचारोंका चिर समय तक पृथक्करण किया जाये । उनका ऐसा विश्वास हो गया था कि जो आज जैनधर्ममें नाना पंथ-भेद हो गये हैं उन सब भेदोंको दूर करके धर्मका पुनरुद्धार अथवा दिग्विजय किया जाये तब ही जैनधर्मकी दशा सुधर सकेगी । परन्तु यह पुनरुद्धार या दिग्विजय त्यागी बननेसे ही हो सकेगा । और इस त्याग - दशाके द्वारा संसार भी लाभ उठा सके, इस लिए उसे तब धारण करना चाहिए जब कि संसार पर उसका सिक्का जम सके । और सिक्का संसार पर तब ही जम सकता है जब कि अपने हाथों कमायी हुई धन-दौलत और सांसारिक सुख आदिका त्याग किया जाये, और अपने में असाधारण ज्ञान-शक्ति हो । जो पुरुष सब प्रकार के सांसारिक सुखोंके होते हुए उनका त्याग करता है उसीके उपदेशका संसार पर सिक्का जम सकता है। धन-दौलत न हो, और कोई प्रकारका सांसारिक सुख भी न हो; परंतु असाधारण ज्ञान-शक्ति होनेके कारण कोई पुरुष संसारका त्याग कर भी दे
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