________________
परिचय |
१५
अच्छी तरह सिद्धि करदी । इनके मनमें कीर्ति, लोक-हित या अपनेको भगवान कह कर पुजवानेकी आकांक्षा आदिमेंसे कोई एक भ्रम समाया हुआ था; और इसी कारण इनने यत्परोनास्ति प्रयत्न कर विजय प्राप्त कर लिया । कितनोंने शृंगार और लोगोंकी इच्छाके अनुसार साधनोंकी सृष्टिकर उनके चित्तको मोह लिया । दुनिया मोह-वश हो सब कुछ भूल जाती है । मतलब यह कि लोग अपनी इच्छा के अनुसार ही इन धर्म-स्थापकों के धर्मको देख कर उस पर मुग्ध हो गये और गडरिया प्रवाहकी तरह फिर उनकी संख्या बढ़ने लगी । कितनोंने इन धर्मों में नीति, ज्ञान और वैराग्य आदि देख कर उनके उपदेशको स्वीकार किया । बात यह है कि साधारण जनता से धर्म-प्रवर्तकोंकी बुद्धि अधिक होनेके कारण उसने इनको साक्षात् भगवान के रूपमें ही मान लिया । कितनोंने धर्म फैलानेके लिए पहले तो वैराग्यका उपदेश किया और बाद में उसकी जगह सुख-चैनके साधनोंको प्रविष्ट कर दिया । कहनेका मतलब यह कि अपने मतके स्थापन करने की भ्रान्ति या ज्ञानकी अपूर्णता आदि किसी भी कारणसे क्यों न हो, परन्तु इतना तो निश्चित है कि उन लोगोंको दूसरोंका कहना अच्छा नहीं जान पड़ा; और इसी लिए फिर उन्होंने अपना एक भिन्न ही मत स्थापन किया । इसी तरह धीरे धीरे अनेक मतोंका जाल फैलता गया । ऐसे धर्म जिन घरोंमें चार-पाँच पीढ़ी तक माने- पूजे गये कि फिर वे उनके कुल- धर्म ही हो गये । इसी प्रकार जगह जगह होता गया ।"
इन विचारोंको यहाँ इस लिए इन पर अपने विचार जाहिर करें;
राजचंद्रके इस विषय में कैसे विचार थे । ऊपर यह बात लिखी जा चुकी है
Jain Education International
उद्धृत नहीं किया गया है कि पाठक परन्तु इस लिए किया है कि श्रीमद्
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org