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________________ श्रीमद् राजचन्द्रकर बाकीके सब धर्म असत्य हैं। परन्तु मैं यह नहीं कह सकता । मेरा कहना है कि शुद्ध आत्म-ज्ञानके कारण निश्चय-नयके द्वारा वे धर्म असत्य ठहर सकते हैं। परन्तु व्यवहार-नयसे उनको असत्य नहीं ठहराया जा सकता । मैं कहता हूँ कि एक धर्म सत्य है, बाकीके अपूर्ण और सदोष हैं । इसी प्रकार कुछ कुतर्कवादी तथा नास्तिक सर्वथा असत्य हैं। परन्तु जो परलोक तथा पाप-सम्बंधी कुछ ज्ञान सिखलाते हैं उन धर्मोंको अपूर्ण तथा सदोष कहना चाहिए। जो एक दर्शन पूर्ण और निर्दोष कहा गया उसके सम्बन्धकी चर्चाको थोड़ी देरके लिए हम एक ओर रख कर दूसरा विचार करते हैं। तुम्हें शंका होगी कि जिन बाकीके मतोंको तुमने सदोष और अपूर्ण बतलाया उनके प्रवर्तकोंने ऐसा उपदेश क्यों किया? इस प्रश्नका समाधान होना बहुत आवश्यक है । बात यह है कि इन धर्म-प्रवर्तकोंकी बुद्धिकी गति जहाँ तक थी वहीं तक इन्होंने विचार किया है। अनुमान, तर्क, उपमान आदि प्रमाणों द्वारा जो कथन सिद्ध होता जान पड़ा वह इन्हें प्रत्यक्ष-सा ही ज्ञात हुआ और उसीके अनुसार फिर इन्होंने उसका उपदेश किया । इन्होंने जिस पक्षको ग्रहण किया उसे एकान्त-रूपसे ग्रहण किया । भक्ति, श्रद्धा, नीति, ज्ञान या क्रिया आदिमें से एक ही विषयका विशेष वर्णन किया । इनके सिवाय अन्य जिन मानने योग्य विषयोंका भी इन्होंने वर्णन किया उन सबके वास्तविक स्वरूपको ये अच्छी तरह कुछ भी समझ सके; परन्तु अपनी विशाल बुद्धिके अनुसार इनने उनका भी बहुत वर्णन किया । तर्क-सिद्धान्त तथा उदाहरणादिसे सामान्य बुद्धिवाले तथा जड़भरतके जैसे लोगोंके सामने इनने अपने मतकी बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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