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परिचय।
इसके पहले भी उन्होंने प्रायः मोरवी, राजकोट, बढवाण, भुज, जामनगर तथा ऐसे ही एक-दो और छोटे छोटे गाँवोंके सिवाय कुछ न देखा था । और इन गांवों में भी उनका जिन लोगोंसे परिचय था वे भी इनके खास गुणोंके कारण इन पर अधिक श्रद्धाके ही रखनेवाले थे । मतलब यह कि इन्हें कोई ऐसे कारण न मिले जो इनके विचारोंके विकाशमें उपकारक होते । ऐसे बहुतसे परिचित जन थे जो इनसे ज्ञान-लाभ करनेकी इच्छा करते; परन्तु इनके विचारोंकी वृद्धिका कोई जरिया न थी।
इस विषयका विचार करनेके लिए हमें कुछ गहरा उतरना पड़ेगा। श्रीमद् राजचंद्र १३ वर्षकी उम्र तक ववाणियाको छोड़ कर कहीं बाहर नहीं गये थे । चौदह या पंद्रह वर्षकी अवस्था होने पर उन्हें मोरवी जानेका मौका मिला। उस समय मोरवीमें शंकरलालजी नामके एक शीघ्र-कवि निवास करते थे । वे आठ अवधान करते थे । श्रीमद् राजचंद्रको भी उनके अवधानोंके देखनेका मौका मिला। उनके अवधान देख कर इनके मनमें भी ऐसे ही अवधान करनेकी इच्छा हुई। और दूसरे ही दिन इन्होंने इसी प्रकारके अवधान करके बतला दिये । इसके बाद लगभग सतरह वर्षकी उम्रमें इनने जामनगरमें कोई सोलह अवधान करना आरंभ किया । उस समय (१९४१) काठियावाड़में 'धर्म-दर्पण' नामका एक पत्र निकलता था । उसमें श्रीमद् राजचंद्रके विषयमें एक छोटासा नोट प्रकाशित हुआ था । उसका सार यह है:- . ___“जो लोग पुनर्जन्म नहीं मानते उनके लिए शीघ्र-कवि श्रीमद् राजचंद्रकी अद्भुत शक्ति इस बातके सिद्ध करनेको बहुत बड़ा प्रबल प्रमाण है कि पुनर्जन्म अवश्य है। भारतवर्षकी आर्य-जातिको राजचंद्र जैसे कविकी
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