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श्रीमदू राजचन्द्र
भव्य भवनकी इच्छाको पूरा करनेके लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष-वैसे ही भवनके देखनेकी आवश्यकता है उसी भाँति भव्य विचार-भवनकी इच्छा होनेके पहले उसी प्रकारके विचारोंकी-प्रत्यक्ष या परोक्ष-जानकारीकी भी आधश्यकता है। इस बातको सरल भाषामें यों कहा जा सकता है कि किसी भी प्रकारके विचार मनमें तब ही उठते हैं जब कि उसी प्रकारके विचार-वातावरणमें रह कर मनने उस प्रकारकी शिक्षा लाभ की हो। श्रीमद् राजचंद्रकी जैसी महत्त्वाकांक्षा थी, कहना कठिन है कि उस प्रकारके विचारोंका प्रत्यक्ष या परोक्ष अवलोकन उनने कब किया । भारतवर्ष में शिक्षाका प्रचार जितना आज है ३० वर्ष पहले वह बहुत ही कम था ।
और काठियावाड़में तो इससे भी बहुत कम था । श्रीमद् राजचंद्र जिस दो हजारकी बस्तीवाले एक छोटेसे गाँवमें रहते थे वहाँ उन्हें सिर्फ गुजरातीकी सातवीं पुस्तक तककी शिक्षा मिल सकी थी। इसके सिवाय वे विशेष कुछ पढ़े-लिखे न थे। वे १९ वर्षकी उम्रमें जब मोरवीसे बम्बई आये उसके पहले उन्होंने मोरवी, राजकोट, भुज या ऐसे ही और एक-दो गाँवोंके सिवाय कुछ देखा न था। आश्चर्य है कि ऐसे एक छोटेसे बालकने सतरह-अठारह वर्षकी उम्रमें ही ऐसी भारी महत्त्वाकांक्षा जाहिर की ! मानस-शास्त्रकी दृष्टिसे देखने पर बड़ी कठिनता आकर उपस्थित होती है कि इस प्रकारकी महत्त्वाकांक्षाके उत्पन्न होनेके कारण उन्हें कब और कैसे मिल गये । लगभग तेरह वर्षकी उम्र तक तो वे अपनी जन्मभूमि छोड़ कर ऐसे किसी स्थान पर भी न गये कि जहाँ उन्हें इस प्रकारके विचार-वातावरणका समागम मिल सकता। इसके कोई तीन या साढ़े तीन वर्ष-बाद उन्होंने 'मोक्षमाला' नामक ग्रन्थको लिखनेका विचार किया।
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