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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतसर्व जीव छ सिद्धसम, जे समजे ते थाय । सद्गुरुआज्ञा जिनदशा, निमित्त कारण मांय ॥१३५॥ सिद्धतुल्यान् समान् जीवान् यो जानाति भवेत् स सः।
अर्हत्स्थितिर्गुरोराज्ञा निमित्तं तत्र विद्यते ॥ १३५ ॥ अर्थात्-सब जीवोंमें सिद्धोंके सदृश सत्ता है। परन्तु वह उसीमें प्रकट होती है जो उसे समझता है। उसकी प्राप्तिके दो निमित्त-कारण हैं । एक तो सुगुरुकी आज्ञानुसार चलना; और दूसरे सद्गुरु द्वारा उपदेश की गई जिन-अवस्थाका विचार करना । उपादाननुं नाम लई, ए जे तजे निमित्त । पामे नहीं सिद्धत्वने, रहे भ्रांतिमां स्थित ॥ १३६ ॥
उपादानच्छलेनैव निमित्तानि त्यजन्ति ये। लभन्ते सिद्धभावं नो भ्रान्ताः स्युस्ते उत ध्रुवम् ॥१३६
अर्थात्----शास्त्रोंमें आत्म-साधनके दो कारण कहे गये हैं। एक निमित्त-कारण और दूसरा उपादान-कारण । सद्गुरुकी आज्ञा आदि निमित्त-कारण है और आत्माके ज्ञान-दर्शन आदि उपादान-कारण हैं। इस लिए जो केवल उपादानका नाम ले ले कर निमित्त कारणको छोड़ देंगे वे सिद्धत्वको प्राप्त न होंगे और भ्रममें पड़े रहेंगे। कारण शास्त्रोंमें सच्चे निमित्त-कारणके निषेधार्थ उपादानकी व्याख्या नहीं की गई है। परन्तु इतना ध्यानमें रक्खो कि सच्चे निमित्त-कारणके मिलने पर उपादानको सुषुप्ति अवस्थामें रखनेसे भी कुछ लाभ नहीं। इस लिए सच्चे निमित्तके मिलने पर उसकी सहायतासे उपादानको अभिमुख करना उचित है, पुरुषार्थ-रहित होना ठीक नहीं है । ऋषियोंकी की हुई व्याख्याका यह मथितार्थ है।
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