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आत्मसिद्धि । मुखथी ज्ञान कथे अने, अंतर छुट्यो न मोह । ते पामर प्राणी करे, मात्र ज्ञानीनो द्रोह ॥ १३७ ॥
वक्ति ज्ञानकथां वक्त्राच्चित्तं मोहतमावृतम् । यस्य रङ्कस्य मत्यस्य ज्ञानिद्रोही स केवलम् ॥ १३७ ॥ अर्थात्---मुँहसे जो निश्चय-नयका ढोंग करते हैं, परन्तु अन्तरङ्गमें स्वयं मोहको नहीं छोड़ सकते ऐसे क्षुद्र प्राणी अपनेको ज्ञानी कहलानेकी कामनासे सच्चे ज्ञानी पुरुषोंके साथ द्रोह करते हैं। दया, शांति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग, वैराग्य। होय मुमुक्षुघटविषे, एह सदाय सुजाग्य ॥ १३८ ॥
दया शान्तिः क्षमा साम्यं वैराग्यं त्याग-सत्यते । मुमुक्षुहदये नित्यमेते स्युः प्रकटा गुणाः ॥ १३८ ॥ अर्थात्-मुमुक्षुके हृदयमें दया, शान्ति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग और वैराग्य ये गुण सदा जाग्रत रहते हैं। अर्थात् इन गुणोंके बिना मनुष्य मुमुक्षु नहीं हो सकता। मोहभाव क्षय होय ज्यां, अथवा होय प्रशांत । ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी कहिये भ्रांत ॥ १३९॥
यत्राऽस्ति मोहनं क्षीणं वा प्रशान्तं भवेत् तकत् । वाच्या ज्ञानिदशा साऽन्या भ्रान्तता स्पष्टमुच्यते १३९ अर्थात्-मोह-भावका जहाँ क्षय हो गया हो अथवा मोहावस्था अत्यन्त मन्द पड़ गई हो उसे ज्ञानावस्था कहते हैं। इसके सिवा जिसने अपनेमें ज्ञान प्राप्त हो जानेकी कल्पना करली है वह केवल भ्रान्ति है। सकळ जगत् ते एठवत्, अथवा खमसमान । ते कहिये ज्ञानीदशा, बाकी वाचाज्ञान ॥ १४ ॥
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