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आत्मसिद्धि ।
गच्छ मतनी जे कल्पना, ते नहीं सद्व्यवहार । भान नहीं निजरूपनं, ते निश्चय नहीं सार ॥ १३३ ॥ सद्व्यवहारहीनाऽस्ति कल्पना मत - गच्छयोः ।
निजभानाद् ऋते तात ! निश्चयो न हि सुन्दरः ॥ १३३॥ अर्थात्– गच्छ, पंथ, आदि मत - कल्पना सद्व्यवहार नहीं है; किन्तु आत्मार्थी पुरुषोंके लक्षणमें जिस दशाका वर्णन किया गया है और मोक्षो - पाय बतलाते हुए जो जिज्ञासुके लक्षण कहे गये हैं वह सद्व्यवहार है । उसका यहाँ बहुत ही संक्षेप में वर्णन किया है । इसी प्रकार जिसे अपने आत्म- खरूपका भान नहीं अर्थात् शरीरादिके अनुभवकी भाँति जिसेआत्माका अनुभव नहीं हुआ, देहमें जिसकी ममत्त्व - बुद्धि है और जो वैराग्यादि साधनों को प्राप्त किये बिना ही 'निश्चय' 'निश्चय' चिल्लाया करता उसका वह निश्चय - नयका गर्व निस्सार है - निष्फल है । आगळ ज्ञानी थइ गया, वर्त्तमानमां होय । थाशे काळ भविष्यमां, मार्गभेद नहीं कोय ॥ १३४ ॥ अभूवन् ज्ञानिनः पूर्वं वर्तन्ते ये च नाऽऽगताः । विदां तेषां समेषां वै मार्गभेदो न विद्यते ॥ १३४॥
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अर्थात् भूतकाल में जो ज्ञानी जन हो गये हैं, वर्तमानमें हैं तथा भविष्यमें होंगे उनके मार्ग में कोई भेद नहीं है अर्थात् वास्तवमें उन सका एक ही मार्ग है । और उस मार्गके प्राप्त करने योग्य व्यवहारका परमार्थ साधक- रूपसे देशकालादिके भेदों द्वारा भी वर्णन किया गया हो तो भी उसका फल एक ही उत्पन्न होगा - परमार्थसे उसमें कोई भेद नहीं है ।
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