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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतप्रेप्सवः परमार्थं ये ते कुर्वन्त्वात्मपौरुषम् । भवस्थित्यादिहेतोस्तु न च्छिन्दन्तु निजं बलम् ॥१३०॥ अर्थात्-जो तुम परमार्थको चाहते हो तो सच्चा पुरुषार्थ करो; कर्मोंके उदय आदिका आश्रय लेकर आत्म-हितसे मुँह न मोड़ो। निश्चयवाणी सांभळी, साधन तजवां नोय । निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय ॥ १३१॥
आकर्ण्य निश्चितां वाणी त्याज्यं नैव सुसाधनम् । रक्षित्वा निश्चये लक्ष्यमाचर्यः साधनाचयः॥ १३१॥ अर्थात्-निश्चय-नयका कथन सुन कर,-कि आत्मा अबंध है, असंग है, सिद्ध है,-साधनोंको न छोड़ दो, किन्तु निश्चय-नयका स्वरूप ध्यानमें रख कर साधनों द्वारा उस निश्चय-स्वरूपके प्राप्त करनेका यत्न करो। नय निश्चय एकांतथी, आमां नथी कहेल। एकांते व्यवहार नहीं, बन्ने साथ रहेल ॥ १३२ ॥ निश्चयो व्यवहारो वा नात्रैकान्तेन दर्शितः । यत्र स्थाने यथायोग्यं तथा तद् युगलं भवेत् ॥ १३२॥ अर्थात्-यहाँ न तो एकान्तसे निश्चय-नयका कथन किया गया है और न व्यवहार-नयका; किन्तु दोनों जहाँ जिस प्रकार घट जायँ उसी प्रकार एक साथ रहती हैं।
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