________________
आत्मसिद्धि।
उपसंहार ।
-
दर्शन षटे शमाय छे, आ षट् स्थानक मांहि । विचारतां विस्तारथी, संशय रहे न कांह ॥ १२८ ॥
स्थानषट्ठू समाप्यन्ते दर्शनानि षडेव भोः । न तत्र संशयः कोऽपि यद्यालोच्येत विस्तरम् ॥१२८॥
अर्थात्-इन छहों पदोंमें छहों दर्शन समाजाते हैं। अच्छी तरह विचार करने पर फिर किसी प्रकारका सन्देह नहीं रह जाता । आत्मभ्रांतिसम रोग नहीं, सद्गुरु वैद्य सुजाण । गुरुआज्ञासम पथ्य नहीं, औषध विचार ध्यान ॥१२९
आत्मभ्रान्तिसमो रोगो नास्ति भिषग् गुरूपमः। गुरोराज्ञासमं पथ्यं ध्यानतुल्यं न चौषधम् ॥ १२९ ॥ अर्थात्-आत्माके स्वरूपका भान न होनेके जैसा तो कोई रोग नहीं है, सद्गुरुके जैसे सच्चे और कुशल कोई वैद्य नहीं है, सद्गुरुकी आज्ञानुसार चलनेके जैसा कोई पथ्य नहीं है और विचार तथा निदिध्यासनध्यान के जैसी कोई औषधि नहीं है । जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थ । भवस्थिति आदि नाम लइ, छेदो नहीं आत्मार्थ १३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |