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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतष्काम करुणासे उपदेश करते हैं; परन्तु अपने शिष्य धर्मका स्मरण कर मैं कहता हूँ कि संसारमें जितने भी पदार्थ हैं वे सब तो आत्माकी अपेक्षा कुछ मूल्यवान नहीं है तब जिनने मुझे आत्मा प्रदान किया उनके सामने मैं उसे छोड़ कर और क्या अर्पण करूँ? इस कारण उपचारसे मात्र इतना कर सकता हूँ कि मैं सर्वथा उन्हीं एक सुगुरुके शरण हूँ। आ देहादि आजथी, वों प्रभुआधीन । दास, दास, हुं दास छ, तेह प्रभुनो दीन ॥ १२६ ॥
अद्यतस्तच्छरीरादि जायतां प्रभुचेटकम् । दासो दासोऽस्मि दासोऽस्मि तत्पभोर्दीनशेखरः ॥१२६
अर्थात्-ये शरीर आदि जो मेरे गिने जाते हैं आजसे इन सबको मैं प्रभुके अधीन करता हूँ। मैं उन प्रभुका अब दास हूँ-अत्यन्त दास हूँ-बड़ा ही दीन दास हूँ। षड् स्थानक समजावीने, भिन्न बताव्यो आप । म्यानथकी तरवारवत्, ए उपकार अमाप ॥ १२७ ॥ स्थानषट्वं विसंज्ञाप्य भिन्नं दर्शितवान् भवान् । असिकोशमिवाऽऽत्मानं चामितोऽयमनुग्रहः ॥ १२७ ॥ अर्थात्-हे देव, आपने छहों पदोंका स्वरूप समझा कर म्यानसे तलवारको जुदी करनेकी भाँति आत्माको शरीरादिकसे स्पष्ट जुदा कर दिया। प्रभो, आपने मुझ पर वह उपकार किया है कि जिसकी कोई इयत्तासीमा-नहीं।
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