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आत्मसिद्धि ।
मोक्ष को निजशुद्धता, ते पामे ते पंथ । समजाव्यो संक्षेपमां, सकळ मार्ग निग्रंथ ॥ १२३ ॥ उक्त मोक्षो निजा शुद्धिः स मार्गो लभ्यते यतः । संक्षेपेणोदितः शिष्य ! नैर्ग्रन्थः सकलः पथः ॥ १२३ ॥ अर्थात् - आत्माका शुद्ध पद मोक्ष है, वह जिसके द्वारा प्राप्त किया जा सके उसे मोक्ष मार्ग समझना चाहिए । श्रीसद्गुरुने कृपा करके निर्यन्थपनेका सब मार्ग अच्छी तरह समझा दिया । अहो ! अहो ! श्रीसद्गुरु, करुणासिंधु अपार । . आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो ! अहो ! उपकार १२४ कृपापानीयकूपार ! गुरुदेव ! अहो ! अहो ! । अयमुपकृतो दीनश्चोपकारस्त्वहो ! अहो ! ॥ १२४ ॥ अर्थात् हे करुणाके अपार समुद्र, हे आत्म- लक्ष्मी विराजमान प्रभो, हे सुगुरो, अहा, आपने इस क्षुद्र प्राणी पर विस्मय उत्पन्न करनेवाला उपकार किया है !
शुं प्रभुचरण कने धरूं ? आत्माथी सौ हीन । ते तो प्रभुए आपियो, वर्तु चरणाधीन ॥ १२५ ॥ प्रभोः पादे धरेयं किमात्मतो हीनकं समम् । अर्पितः प्रभुणा सोऽस्ति भवेयं तद्वशंवदः ॥ १२५ ॥ अर्थात् – जिन सुगुरुने मेरा इतना उपकार किया उनके चरणोंकी भेंट मैं क्या करूँ ? यद्यपि सुगुरु प्रभु तो निष्काम हैं, और मात्र नि
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