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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतभास्युं निजस्वरूप ते, शुद्ध चेतनारूप । अजर, अमर, अविनाशी ने, देहातीत स्वरूप ॥१२०॥
तद् भासितं निजं रूपं शुद्धं चैतन्यलक्षणम् ।
अजरं चामरं स्थास्तु देहातीतं सुनिर्मलम् ॥ १२० ॥ । अर्थात्-अपना स्वरूप उसे शुद्ध चैतन्यमय, अजर, अमर, अविनाशी तथा शरीरादिसे स्पष्ट भिन्न भासमान हुआ । कता, भोक्ता कर्मनो, विभाव वर्ते ज्यांय । वृत्ति वही निजभावमां, थयो अकर्ता त्यांय ॥१२॥
यदा विभावभावः स्याद् भोक्ता कर्ता च कर्मणः। यदाऽविभावभावः स्याद् भोक्ता को न कर्मणः १२१ अर्थात्-जहाँ विभाव-भाव-मिथ्यात्व-है वहीं निश्चय-नयसे कमौका कर्त्तापना और भोक्तापना है; और जहाँ विभाव-भाव दूर हो गया है वहाँ न कर्त्तापना है और न भोक्तापना अर्थात् आत्म-स्वभावमें प्रवृत्ति हो जानेसे आत्मा अकर्ता हो गया। अथवा निजपरिणाम जे, शुद्ध चेतनारूप। का भोक्ता तेहनो, निर्विकल्पखरूप ॥ १२२ ॥ स्वाभाविक्यस्ति वा वृत्तिःशद्धा या चेतनामयो । तस्याः कोऽस्ति भोक्ताऽस्ति निर्विकल्पस्वरूपभाक् १२२
अर्थात्-अथवा शुद्ध चैतन्य स्वरूप जो आत्म-परिणाम हैं उनका निर्विकल्प-रूपसे कर्ता और भोक्ता हुआ।
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