________________
श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतए ज धर्मथी गोक्ष छे, तुं छो मोक्षस्वरूप । अनंत दर्शन ज्ञान तुं, अव्यावाध स्वरूप ॥ ११६ ॥ मोक्ष एव ततो धर्मान्मोक्षात्मा च त्वमेव भोः !। अनन्तदर्शनं त्वं च अव्यावाधरूपस्त्वकम् ॥११६ ॥
अर्थात्-और इसी धर्मसे मोक्ष होता है; और तू स्वयं ही मोक्ष स्वरूप है। मतलब यह कि शुद्ध आत्म-पद ही मोक्ष है और वह आत्मा-तू-अनंत ज्ञान-दर्शन तथा सुख-स्वरूप है। शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यधन, स्वयंज्योति सुखधाम । बीजुं कहिये केटलं ? कर विचार तो पाम ॥ ११७ ॥
शुद्धो बुद्धश्चिदात्मा च स्वयंज्योतिः सुखालयम् । विचारय ततो विद्धि स्वं बहु तु किमुच्यते ? ॥ ११७ ॥
अर्थात्-तू शरीरादिक सब वस्तुओंसे भिन्न है। आत्म-द्रव्य किसीमें नहीं मिलता और न आत्मामें ही कोई मिलता है। परमार्थ-दृष्टि से द्रव्य द्रव्यसे सदा भिन्न रहता है। इसी लिए तू शुद्ध है, ज्ञान-स्वरूप है, चैतन्य प्रदेशात्मक है, स्वयं-ज्योति है अर्थात् तुझे कोई प्रकाशित नहीं करता-तू खभावसे ही प्रकाश-स्वरूप है; और अव्याबाध सुखका धाम है। इससे अधिक और क्या कहा जाय; अथवा और कहना ही क्या बाकी रह जाता है। थोड़ेमें यह कहा जाता है कि जो तू विचार करेगा तो इस पदको अवश्य प्राप्त होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org