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आत्मसिद्धि।
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अर्थात्-सब प्रकारके आभास-रहित आत्माके जन-गुणकी अखण्डता कभी खंडित न हो, मन्द न हो तथा नष्ट न हो उसे केवलज्ञान कहते हैं। इस केवलज्ञानको प्राप्त होने पर शरीर रहते हुए भी उत्कृष्ट जीवन-मुक्त-रूप दशाका अनुभव किया जाता है। कोटि वर्षनुं स्वप्न पण, जाग्रत थतां समाय । तेम विभाव अनादिनो, ज्ञान थतां दूर थाय ॥११४॥
स्वप्नोऽपि कोटिवर्षस्य निद्रोच्छेदे समाप्यते । विभावोऽनादिजो दूरे नश्येद् ज्ञाने तथा सति ॥११४॥
अर्थात्-जिस प्रकार जाग्रत होने पर करोड़ों वर्षों का भी स्वप्न उसी क्षण अदृश्य हो जाता है उसी प्रकार आत्म-ज्ञान हो जाने पर सब विभाव-भाव दूर हो जाते हैं। छूटे देहाध्यास तो, नहीं कर्त्ता तुं कर्म । नहीं भोक्ता तुं तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म ॥ ११५॥
देहाध्यासो यदि नश्येत् त्वं कर्ता न हि कर्मणाम् । न हि भोक्ता च तेषां त्वं धर्मस्यैतद् गूढं मतम् ॥११५॥
अर्थात्-हे शिष्य, धर्मका मर्म यह है कि जो शरीरमें आत्म-बुद्धि मानी जाती है और जिसके कारण स्त्री-पुत्र आदि सब वस्तुओंमें मोह भाव हो रहा है वह आत्म-बुद्धि तो आत्मामें ही मान जानी चाहिए। इससे, देहमें जो आत्मत्व-बुद्धि और आत्मामें देहत्व-बुद्धि हो रही है वह छूट जाय तो तू फिर न कर्मोंका कर्ता रहे और न भोक्ता;---
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