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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतवर्ते निजखभावनो, अनुभव लक्ष प्रतीत । वृत्ति वहे निजभावमां, परमार्थे समकित ॥ १११ ॥
अनुभूतिः स्वभावस्य तल्लक्ष्यं तत्र प्रत्ययः । निजतां संवहेद् वृत्तिः सत्यं सम्यक्त्वमुच्यते ॥ १११॥
अर्थात्--जहाँ आत्म-स्वभावका अनुभव, उसके प्रति हृदयका आकर्षण तथा उस पर विश्वास है और प्रवृत्ति भी उसी ओर लग रही है वहीं वास्तवमें सम्यक्त्व होता है। वर्धमान समकित थई, टाळे मिथ्याभास। उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद वास ॥ ११२ ॥
भूत्वा वर्द्धिष्णु सम्यक्त्वं मिथ्याभासं प्रटालयेत् । चारित्रस्योदयस्तत्र वीतरागपदस्थितिः ॥११२॥ अर्थात् --वह सम्यक्त्व अपनी बढ़ती हुई उज्ज्वलतासे, आत्मामें जो हास्य, शोकादि कुछ दोष मिथ्या भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं उसे दूर करता है, और उससे स्वभाव-समाधि-रूप चारित्रका उदय होता है जिससे कि सब राग-द्वेषके क्षय-रूप वीतराग पदमें आत्माकी स्थिति होती है। केवळ निजखभावन, अखंड वर्ते ज्ञान । कहिये केवळज्ञान ते, देह छतां निर्वाण ॥ ११३ ॥
केवलं स्वस्वभावस्य स्थिरा यत्र भवेन्मतिः। सोच्यते केवलज्ञानं देहे सत्यपि निर्वृतिः ॥११३ ॥
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