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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
अर्थात्-कर्म-भाव जीवकी अज्ञानता है और मोक्ष-भाव जीवकी अपने स्वरूपमें स्थिति होना है। अज्ञानका स्वभाव अंधकारके जैसा है। जिसप्रकार प्रकाश होने पर बहुत कालका भी अंधकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान-प्रकाशसे अज्ञान नष्ट हो जाता है।
जे जे कारण बंधनां, तेह बंधनो पंथ । ते कारण छेदकदशा, मोक्षपंथ भवअंत ॥१९॥
यो यो बन्धस्य हेतुः स्याद् बन्धमार्गो भवेत् स सः।
बन्धोच्छेदस्थितिर्या तु मोक्षमार्गों भवान्तकः॥१९॥ अर्थात्-जो जो कर्म-बन्धके कारण हैं वे वे कर्म-बन्धके मार्ग हैं और इन कारणोंको जो अवस्था नष्ट कर सके वही मोक्ष-मार्ग है-संसारका अन्त है।
राग, द्वेष, अज्ञान ए, मुख्य कर्मनी ग्रंथ । थाय निवृत्ति जेहथी, ते ज मोक्षनो पंथ ॥१०॥
रागो द्वेषस्तथाऽज्ञानं कर्मणां ग्रन्थिरग्रगा।
यस्मात् तकन्निवृत्तिः स्यान्मोक्षमार्गः स एव भोः! अर्थात्-राग द्वेष और अज्ञानकी एकता ही कर्मकी मुख्य गाँठ है-इनके बिना कर्मोंका बंध नहीं हो सकता । इन कर्मोंकी जिसके द्वारा निवृत्ति हो सके वही मोक्षका मार्ग है।
आत्मा सत् चैतन्यमय, सर्वाभासरहीत । जेथी केवळ पामिये, मोक्षपंथ ते रीत ॥ १०१॥
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