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आत्मसिद्धि। मोक्षस्थानं कदापि स्यान्नाऽविरोध्युपायि तत् ।
अनन्तकालजः कर्मचयच्छेद्यः कथं भवेत् ? ॥९२॥ अर्थात्-~-मोक्ष कदाचित् हो भी तो ऐसा कोई अविरोधी तथा यथार्थ उसकी प्राप्तिका उपाय नहीं है जिस पर विश्वास किया जा सके । क्योंकि अनन्त कालके कर्मोंको थोड़ेसे काल तक स्थिर रहनेवाला मानव-देह कैसे नाश कर सकता है ?
अथवा मत दर्शन घणां, कहे उपाय अनेक । तेमां मत साचो कयो? बने न एह विवेक ॥ ९३॥
वा मतानि सुभिन्नानि नैकोपायप्रदशीनि ।
मतं सत्यं तु किं तत्र शक्यैषा न विवेकिता ॥ ९३ ॥ अर्थात्-अथवा थोड़ी देरके लिए मानव-देहकी कम उम्रकी बातको छोड़ भी दिया जाय तो भी जगत्में मत और दर्शन अनेक हैं और वे सभी मोक्षके नाना उपाय बतलाते हैं । अर्थात्-मोक्षके विषयमें कोई कुछ कहता है और कोई कुछ कहता है तब उनमें सच्चा मत कौनसा है, यह निश्चय करना कठिन है।
कह जातिमां मोक्ष छे, कया वेषमा मोक्ष । एनो निश्चय ना बने, घणां भेद ए दोष ॥९४ ॥
कस्यां जातौ भवेन्मोक्षो वेषे कस्मिंश्च निवृतिः ? ।
निश्चेतुमेतन्नो शक्यं बहुभेदो हि दूषणम् ॥ ९४ ॥ अर्थात्-और न इस बातका ही निश्चय हो सकता है कि ब्राह्मण आदि किस जातिसे और किस वेषसे मोक्ष होता है। कारण ये भेद भी
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