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श्रीमदू राजचन्द्रप्रणीत
वित्यो काळ अनंत ते, कर्म शुभाशुभ भाव । तेह शुभाशुभ छेदतां, उपजे मोक्षखभाव ॥९०॥ सदसत्कर्मणो भावादनन्तः समयो गतः ।
संपद्येत तदुच्छेदे जीवे मुक्तिस्वभावता ॥ ९ ॥ अर्थात्---अब तक जो जीवको कर्म-सहित रहते हुए अनन्त काल बीता वह शुभाशुभ कर्मों के प्रति उसकी आसक्तिके कारण बीता । परन्तु यदि जीव कर्मोसे उदासीन हो जाय तो वे भी नष्ट हो सकते हैं और इनके नष्ट होनेसे ही मोक्ष-स्वभाव प्रकट हो सकता है।
देहादि संयोगनो, आत्यंतिक वियोग। सिद्ध मोक्ष शाश्वतपदे, निज अनंत सुखभोग ९१
आत्यन्तिको वियोगो यो देहादियोगजः खलु ।
तन्निर्वाणं समाख्यातं तत्राऽनन्तसुखैकता ॥ ९१ ॥ अर्थात्-जो जीवके साथ देहादिकका संयोग है उनका अनुक्रमसे वियोग तो होता रहता है, परन्तु वह संयोग फिर कभी न हो ऐसा वियोग किया जाय तो सिद्ध-स्वरूप मोक्षस्ख-भाव प्रकट हो सकता है और फिर उसमें अनन्त आत्म-सुख भोगनेको मिलता है।
शिष्यकी शंका । शिष्य कहता है कि 'मोक्षका उपाय नहीं है'---- होय कदापि मोक्षपद, नहीं अविरोध उपाय । कर्मो काळ अनंतनां, शाथी छेद्यां जाय ॥ ९२ ॥
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