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आत्मसिद्धि।
अज्ञान चैतन्य-रूप है और उसी कल्पनाके अनुसार कार्य करनेसे जीवके वीर्य-स्वभावकी स्फूर्ति होती है अथवा यों कहिए कि जीवकी शक्तिका उस कल्पनाके अनुरूप परिणमन होता है और इससे फिर वह द्रव्य-कर्म-रूप पुद्गल-वर्गणाओंको ग्रहण करता है।
झेर, सुधा समजे नहीं, जीव खाय फळ थाय। एम शुभाशुभ कर्मर्नु, भोक्तापणुं जणाय ॥ ८३ ॥ विषं सुधा न वित्तोऽपि खादकः फलमाप्नुयात् ।
एवमेव शुभाऽशुभकर्मणो जीवभोक्तृता ॥ ८३ ॥ अर्थात्-विष और अमृत यह बात नहीं जानते कि हमें इस जीवको फल देना है, तो भी जो (शरीर-धारी) विष या अमृत पीता है उसे फल मिलता है। इसी प्रकार शुभाशुभ कर्म भी यह बात नहीं जानते कि जीवको हमें यह फल देना है तो भी जो शुभाशुभ कर्मोको ग्रहण करता है उसे विष और अमृतकी भाँति फल प्राप्त होता है। - समर्थन-विष और अमृत इस बातको नहीं समझते कि हमें पीनेवालेकी मृत्यु या दीर्घायु होती है। परन्तु उन्हें ग्रहण करनेवालेके लिए खभावसे ही उनका वैसा परिणमन होता है। उसी प्रकार जीवमें शुभाशुभ कर्मोंका परिणमन होता है और वे फल देनेके सन्मुख होते हैं। इस प्रकार जीवमें भोक्तापना स्पष्ट समझमें आता है।
एक रांक ने एक नृप, ए आदि जे भेद । कारणविना न कार्य ते, ए ज शुभाशुभ वेद्य ८४
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