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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत__एको रङ्कः प्रजापोऽन्यः इत्यादिभेददर्शनम् ।
कार्य नाऽकारणं क्वाऽपि वेद्यमेवं शुभाशुभम्।।८४ अर्थात्-देखो, एक रंक है और एक राजा है, इससे मिन्नता, उच्चत्ता तथा कुरूपता, सुन्दरता आदि बहुतसी विचित्रतायें देखी जाती हैं । और जहाँ ऐसा भेद है उसीसे यह सिद्ध है कि समानता नहीं है। यही शुभाशुभ कर्मोंका भोक्तापना है, क्योंकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। __ समर्थन–यदि शुभाशुभ कर्मोका फल न होता हो तो एक राजा एक रंक आदि भेद न होने चाहिए ? क्योंकि जीवत्व तथा मनुष्यत्व सबमें समान है। और इस लिए फिर सबको सुख-दुःख भी समान ही होने चाहिए। जिसके कारण इस प्रकारकी विचित्रता देखी जाती है वह शुभाशुभ कर्मोंसे उत्पन्न हुआ ही भेद है। क्योंकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार शुभाशुभ कर्म भोगे जाते हैं । जिस भाँति विष विष-रूप परिणमता है और अमृत अमृत-रूप होकर परिणमता है उसी भाँति अशुभ कर्म अशुभ-रूप और शुभ कर्म शुभ-रूप होकर परिणमते हैं। इस लिए जीव जैसे जैसे अध्यवसायसे-परिणामोंसे कर्मोको ग्रहण करता है कौका भी फिर वैसे वैसे ही विपाक-रूपमें परिणमन होता है। और जिस भाँति विष और अमृतका परिणमन होकर अन्तमें वे निःसत्व हो जाते हैं उसी प्रकार कर्म भी भोगे जानेके बाद निःसत्व हो कर झड़ जाते हैं।
फळदाता ईश्वरतणी, एमां नथी जरूर । कर्म खभावे परिणमे, थाय भोगथी दूर ॥ ८५॥
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