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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
ईश्वर सिद्ध यथाविना, जगत्नियम नहीं होय । पछी शुभाशुभ कर्मनां, भोग्यस्थान नहीं कोय ८१ असिद्धे ईश्वरे नैव युज्यते जगतः स्थितिः । शुभाशुभविपाकानां ततः स्थानं न विद्यते ॥ ८१ ॥ अर्थात् – ऐसे फलदाता ईश्वरके सिद्ध न होनेसे जगत्का कोई नियम नहीं रह सकता और नियम न रहनेसे शुभाशुभ कर्मों के भोगने के लिए कोई स्थान भी नहीं ठहरता तब जीवका भोक्तापना कहाँ रहा ?
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सुगुरुका उत्तर ।
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सुगुरु कहते हैं कि 'जीव अपने किये कर्मोंको भोगता है, उसका समाधान इस प्रकार है—
भावकर्म निजकल्पना, माटे चेतनरूप । जीववीर्यनी स्फुरणा, ग्रहण करे जडधूप ॥ ८२ ॥ भावकर्म निजा क्लृप्तिरतश्चेतनरूपता ।
जीववीर्यस्य स्फूर्तेस्तु लाति कर्मचयं जडम् ॥ ८२ ॥ अर्थात् — जीव भ्रान्तिके वश हो भाव -कर्मों को - राग-द्वेषादिको - चैतन्य स्वरूप समझता है । और उसी भ्रमके वशवर्ति रहनेके कारण उसमें एक शक्ति स्फुरित होती है । उसी शक्तिके द्वारा वह जड़ - रूप द्रव्य-कर्म की वर्गणाओंको ग्रहण करता है ।
समर्थन – जीव अपने स्वरूपसे अज्ञान रहनेके कारण कर्मोंका कर्त्ता है । वह अज्ञान चैतन्य रूप है । अर्थात् जीवकी ऐसी कल्पना है कि
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