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आत्मसिद्धि । शिष्यकी शंका।
शिष्य कहता है कि 'जीव कर्मोंका भोक्ता नहीं है, वह इस प्रकार--- जीव कर्मका कहो, पण भोक्ता नहीं सोय। शुं समजे जड कर्म के, फळपरिणामी होय ॥७९॥ स्तादात्मा कर्मणः कर्ता किन्तु भोक्ता न युज्यते ।
किं जानाति जडं कर्म येन तत् फलदं भवेत् ॥७९॥ अर्थात्-जीवको कर्मोंका कर्ता मान भी लिया जाय तो भी वह कर्मोंका मोक्ता नहीं हो सकता । क्योंकि जड़ कर्म इस बातको नहीं समझ सकते कि उनका जीवको फल देनेमें परिणमन हो सकता है-वे फल दे सकते हैं। फळदाता ईश्वर गण्ये, भोक्तापणुं सधाय । एम कहे ईश्वरतणुं, ईश्वरपणुं ज जाय ॥ ८॥ भवेदीश्वरः फलदस्तदाऽत्मा भोगभाग् भवेत् ।
अप्यैश्वर्यं न युज्येत ईश्वरे फलदे मते । ८० ॥ अर्थात् —फलका देनेवाला यदि ईश्वरको मान लिया जाय तो भोक्तापना भी सिद्ध हो जायगा अर्थात् ईश्वर जीवको कर्म भुगताता है इस लिए वह कर्मोंका भोक्ता सिद्ध हो जाता है । परन्तु यदि ईश्वरको फल देनेवाला आदि माना जाय तो साथ ही यह विरोध आता है कि उसका ईश्वरपना ही नहीं ठहर सकता।
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