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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
और जब वह अपने स्वरूप में प्रवृत्त नहीं होता तब कर्म-भावका क होता है । वास्तवमें तो वैदान्तादिकमें जीवको अक्रिय कहा है और इसी प्रकार जिनागममें भी सिद्ध - जीव- शुद्धात्मा को अक्रिय कहा है । तब हमने उसे जो शुद्धावस्थामें कर्त्ता होनेके कारण सक्रिय कहा, उसमें सन्देह हो सकता है । पर वह सन्देह इस तरह दूर किया जा सकता है कि शुद्धात्मा पर योगका, पर- भावका और नाना विभावोंका उस अवस्थामें कर्त्ता नहीं इस कारण अक्रिय कहा जाता है । परन्तु अक्रियका अर्थ यदि यह किया जाय कि वह चैतन्यादि स्वभावका भी कर्त्ता नहीं है तब तो फिर उसका कुछ स्वरूप नहीं रहता । बात यह है कि शुद्धात्मामें योगक्रिया नहीं होती इस लिए तो वह अक्रिय है; और स्वाभाविक चैतन्यादि स्वभाव-रूप क्रिया होती है इस लिए सक्रिय है । चैतन्यता आत्मामें स्वाभाविक होने के कारण उसमें परिणमन होना एकात्मता ही है; और इस लिए परमार्थ- दृष्टिसे उसमें सक्रिय विशेषण भी नहीं घट सकता । निजस्वभावमें परिणमन-रूप क्रियासे शुद्धात्मा अपने स्वभावका कर्त्ता कहा गया है । उसमें केवल शुद्ध स्वधर्म होनेसे उसका परिणमन एक आत्मरूप ही होता है । इस लिए उसे 'अक्रिय' कहने में भी कोई दोष नहीं है । जिस विचार- दृष्टिसे आत्मामें सक्रियता और अक्रियता निरूपण की गई है उस विचारको परमार्थ दृष्टिसे ग्रहण करके देखा जाय तो आत्माको 'सक्रिय' तथा 'अक्रिय' कहने में कोई दोष नहीं आ सकता ।
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