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________________ श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतअथवा ज्ञान क्षणिकनु, जे जाणी वदनार । वदनारो ते क्षणिक नहीं, कर अनुभव निर्धार ६९ क्षणिकं वस्त्विति ज्ञात्वा यः क्षणिकं वदेदहो!। स वक्ता क्षणिको नाऽस्ति तदनुभवनिश्चितम् ॥६९॥ अर्थात्-जो यह जानता है कि अमुक पदार्थ क्षणिक है और इसी प्रकार कहता है वह जानने और कहनेवाला क्षणिक नहीं हो सकता । कारण पहले क्षणमें हुआ अनुभव ही दूसरे क्षणमें कहा जा सकता है। और यदि दूसरे क्षणमें वह स्वयं ही न हो तो उसे वह अनुभव कैसे बना रह सकता है। इस लिए इस अनुभवसे भी आत्माकी नित्यता निश्चय करना चाहिए। क्यारे कोइ वस्तुनो, केवळ होय न नाश । चेतन पामे नाश तो, केमा भळे तपास ॥ ७० ॥ कदाऽपि कस्यचिन्नाशो वस्तुनो नैव केवलम् । चेतना नश्यति चेत् तु किंरूपः स्याद् गवेषय ? ७० अर्थात्-वस्तुका सर्वथा नाश किसी भी कालमें नहीं होता, मात्र अवस्थान्तर होता है। इसी प्रकार चैतन्यका भी सर्वथा नाश नहीं हो सकता। और अवस्थान्तर रूप नाश होता हो तो इस बातका शोध करो कि वह किसमें मिल जाता है अथवा किस प्रकारका उसका अवस्थान्तर होता है। घड़ेके फूट जाने पर लोग कहते हैं कि घड़ा नष्ट हो गया; परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो घट-पर्याय नष्ट हुई है, उसके मिट्टीपनेका नाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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