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________________ आत्मसिद्धि। ४३ नहीं हुआ है। मिट्टी धूलके रूपमें परिणत हो जाय तो भी वह परमाणुरूपमें बनी रहेगी। उसका सर्वथा नाश नहीं हो सकता। और न उसका एक परमाणु ही कम हो सकता है । अनुभवके साथ विचार करने पर यह तो जान पड़ेगा कि वस्तुका अवस्थान्तर तो हो सकता है, परन्तु यह कभी नहीं देख पड़ेगा कि उसका सर्वथा नाश हो जाता हो । मतलब यह कि तुम चैतन्यका नाश कह कर यह नहीं कह सकते कि उसका सर्वथा नाश हो जाता है । हाँ, अवस्थान्तर-रूप नाश कह सकते हो। __अच्छा, अब यह देखो कि जैसे घड़ा फूट कर वह क्रम क्रमसे परमाणुओंके रूपमें परिणत हो जाता है वैसे ही चैतन्यका अवस्थान्तर-रूप नाश तुम्हें कहना हो तो उसे किस स्थितिमें कहोगे, अथवा घड़के परमाणु जैसे अन्य परमाणुओंमें मिल जाते हैं वैसे ही चैतन्य किस वस्तुमें मिलने योग्य है । मतलब यह कि इस प्रकारका अनुभव करके तुम देखोगे तो तुम्हें जान पड़ेगा कि आत्मा न तो किसीमें मिलने योग्य है और न पर-वस्तु-स्वरूपमें अवस्थान्तर होने योग्य है। शिष्यकी शंका। शिष्य कहता है कि 'आत्मा कर्मोंका कर्त्ता नहीं है'; और वह इस तरह सिद्ध किया जा सकता है का जीव न कर्मनो, कर्म ज कर्ता कमें। अथवा सहज स्वभाव कां, कर्म जीवनो धर्म ॥७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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