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________________ आत्मसिद्धि। जिससे ये क्रोधादि देहादिके पहलेके संस्कार जान पड़ते हैं। ये संस्कार पूर्व-जन्मको सिद्ध करते हैं और पूर्व-जन्मकी सिद्धिसे ही आत्माकी नित्यता सहज सिद्ध हो जाती है। आत्मा द्रव्ये नित्य छ, पर्याये पलटाय । बाळादि वय त्रण्यनु, ज्ञान एकने थाय ॥ ६८॥ आत्माऽस्ति द्रव्यतो नित्यः पर्यायैः परिणामभाक् । बालादिवयसो ज्ञानं यस्मादेकस्य जायते ॥६८॥ अर्थात्-जिस प्रकार समुद्र में कोई परिवर्तन नहीं होता; किन्तु जो लहरें आती-जाती रहती हैं-उनमें परिवर्तन होता रहता है, उसी प्रकार द्रव्यकी अपेक्षा आत्मा नित्य है-उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता; किन्तु समय समय जो उसके ज्ञानका परिणमन होता रहता है उससे उसका पर्यायपरिवर्तन होता रहता है । बालक-युवा-वृद्ध ये तीन अवस्थायें आत्माकी विभाव पर्यायें हैं । बालकपनमें आत्मा बालक समझा जाता है, जब वह बालकपनको छोड़ युवावस्था धारण करता है, तब युवा कहा जाता है। और इसी प्रकार जब युवावस्था छोड़ कर वृद्धावस्था धारण करता है तब वृद्ध कहा जाता है। इन तीनों अवस्थाओंमें जो भेद हुआ वह पर्याय-भेद है, इससे आत्मामें भेद हुआ न समझना चाहिए। मतलब यह कि परिवर्तन अवस्थाका हुआ है आत्माका नहीं। आत्मा इन तीनों अवस्थाओंको जानता है और तीनों अवस्थाओंकी उसे ही स्मृति है; और यह बात तभी बन सकती है जब कि आत्मा तीनों अवस्थाओंमें एक हो । और जो वह क्षण क्षणमें बदलता रहता हो तब तो ऐसा अनुभव हो ही नहीं सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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