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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतजडथी चेतन उपजे, चेतनथी जड थाय । एवो अनुभव कोइने, क्यारे कदी न थाय ॥६५॥
जडादुत्पद्यते जीवो जीवादुत्पद्यते जडम् ।
एषाऽनुभूतिः कस्यापि कदापि क्वाऽपि नैव रे! ॥६५ अर्थात्-ऐसा अनुभव कभी किसीको नहीं हुआ कि चेतनसे जड़ और जड़से चैतन्य उत्पन्न होता है । ___ समर्थन-संसारमें जितने देहादिक संयोग देखे जाते हैं उन सबका देखने-जाननेवाला आत्मा है। ऐसे अनेक संयोगोंको जब तुम विचार करके देखोगे तो तुम्हें ऐसा कोई संयोग दिखाई न पड़ेगा कि जिससे आत्मा उत्पन्न हुआ हो । एक यही बात तुम्हें सब संयोगोंसे भिन्न-असंयोगी-संयोगसे उत्पन्न न हुआ–सिद्ध करती है कि तुम्हें कोई संयोग नहीं जानते और तुम सब संयोगोंको जानते हो। और यही अनुभवमें भी आता है। इस लिए ऐसे कोई संयोग नहीं, जिनसे आत्मा उत्पन्न हो सके और जो संयोग आत्माकी उत्पत्तिके लिए अनुभव किये जा सकें। जिन जिन संयोगोंकी कल्पना की जाती है उन सबसे वह अनुभव भिन्न किन्तु उनका जाननेवाला होता है। ऐसे अनुभव-स्वरूप आत्माको तुमने नित्य और अस्पय-संयोगी पदार्थके भाव-स्पर्श-रहित-खरूपमें प्राप्त नहीं कर पाया है। जो पदार्थ किसी संयोगसे उत्पन्न न हुआ हो अर्थात् अपने खभावहीसे सिद्ध हो उसका नाश होकर किसी पदार्थमें मिल जाना संभव नहीं और जो नाश होकर दूसरे पदार्थमें उसका मिल जाना संभव होता तो पहले उस पदार्थसे उसकी उत्पत्ति हो जानी चाहिए थी। अन्यथा
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