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आत्मसिद्धि 1
उत्पत्ति-लयबोधौ तु यस्यानुभववर्तिनौ ।
स ततो भिन्न एव स्यान्नान्यथा बोधनं तयोः ॥ ६३ ॥ अर्थात् जिस देहकी उत्पत्ति और नाशका ज्ञान चैतन्यके अनुभवमें आता है वह जड़ देह चैतन्यसे भिन्न हैं । ऐसा हुए बिना उसका ज्ञान होना संभव नहीं । अर्थात् नाश और उत्पत्ति जड़ देहकी होती है, चैतन्यकी उत्पत्ति और नाश नहीं होता ।
समर्थन – जिसके अनुभव में देहकी उत्पत्ति और नाशका ज्ञान होता है वह यदि देहसे भिन्न न हो तो देहकी उत्पत्ति और नाशका ज्ञान किसी प्रकार नहीं हो सकता; अथवा जिस देहकी उत्पत्ति और नाशको जो जानता है उस जाननेवालेको उत्पत्ति और नाश-युक्त पदार्थ से भिन्न होना ही चाहिए | क्योंकि वह तो उत्पत्ति तथा नाश-युक्त नहीं है; किन्तु ऐसे पदार्थों का जाननेवाला है । इस लिए दोनोंकी एकता नहीं हो सकती । जे संयोगो देखिये, ते ते अनुभवदृश्य ।
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उपजे नहीं संयोगथी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ॥६४॥ दृश्यन्ते ये तु संयोगा ज्ञायन्ते ते सदात्मना ।
नात्मा संयोगजन्योऽतः किन्त्वात्मा शाश्वतः स्फुटम् अर्थात् — जो जो संयोग देखे जाते हैं वे सब अनुभव - स्वरूप आत्माके दृश्य हैं- आत्मा उनको जानता है । और संयोगके स्वरूपका विचार करनेसे ऐसा कोई संयोग दिखाई नहीं पड़ता कि जिससे आत्मा उत्पन्न हो सकता हो । इस लिए यह निश्चित है कि आत्मा संयोगसे उत्पन्न हुआ नहीं है - असंयोगी है। और वह स्वाभाविक पदार्थ है, इस लिए प्रत्यक्ष नित्य जान पड़ता है ।
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