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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
अपनेको ही नहीं जानता तब दूसरेको तो जान ही कैसे सकता है। और देह रूपी है, स्थूल आदि पर्यायें उसके स्वभाव हैं और चक्षु-इन्द्रियका विषय है और चैतन्य अरूपी, सूक्ष्म तथा चक्षु-इन्द्रियका अविषय है। तब जड़ देह चैतन्यके उत्पत्ति-विनाशको कैसे जान सकता है ? अर्थात् जब वह स्वयं अपनेको नहीं जानता तब यह कैसे जान सकता है कि 'यह चैतन्य मुझसे उत्पन्न हुआ है' ? कारण जाननेवाला पदार्थ ही जान सकता है और देह तो जाननेवाला नहीं है। तब चैतन्यकी उत्पत्ति
और नाश किसके अधीन कहे जायँ ? देहके अधीन तो कहे नहीं जा सकते, कारण कि वह प्रत्यक्ष जड़ है और उसके इस जड़त्वको जाननेवाला इससे भिन्न दूसरा पदार्थ भी समझमें आता है। कदाचित् यह कहा जाय कि चैतन्य अपनी उत्पत्ति और नाशको स्वयं ही जानता है, तो यह कहना ही बाधित ठहरता है । क्योंकि इस कहनेसे तो यही सिद्ध होगा कि पर्यायान्तरसे चैतन्यका अस्तित्त्व ही स्वीकार कर लिया गया। कारण जो चैतन्य अपनी उत्पत्ति और नाशको जान सकता है तब उसका होना तो स्वयं सिद्ध हो गया । इस लिए यह कहना अपने ही सिद्धान्तका विरोधी है; और कथन मात्र है। जिस प्रकार कोई यह कहे कि 'मेरे मुँहमें जबान नहीं है,' उसी प्रकार यह कहना है कि चैतन्य अपनी उत्पत्ति और नाशको जानता है इस लिए वह नित्य नहीं है। इस सिद्धान्तमें कितनी यथार्थता है इस पर तुम ही विचार करो।
जेना अनुभव वश्य ए, उत्पन्न, लय, ज्ञान । ते तेथी जूदाविना, थाय न केमें भान ॥ ६३ ॥
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