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________________ आत्मसिद्धि । उसकी नाशरूप एकता हो नहीं सकती । इस लिए आत्माको अजन्मा, अविनाशी समझ कर यह भी विश्वास करना चाहिए कि आत्मा 'नित्य है। कोइ संयोगोथी नहीं, जेनी उत्पत्ति थाय । नाश न तेनो कोइमां, तेथी 'नित्य' सदाय ॥६६॥ यस्योत्पत्तिस्तु केभ्योऽपि संयोगेभ्यो न जायते । न नाशः संभवेत् तस्य जीवोऽतो ध्रुवति ध्रुवम् ६६ अर्थात्---जिसकी उत्पत्ति किसी भी संयोगसे नहीं होती उसका नाश भी किसी अन्य पदार्थमें नहीं होता। इस लिए आत्मा त्रिकाल नित्य है। क्रोधादि तरतम्यता, सादिकनी मांय । पूर्वजन्मसंस्कार ते, जीवनित्यता त्यांय ॥ ६७ ॥ क्रोधादितारतम्यं यत् सर्प-सिंहादिजन्तुषु । पूर्वजन्मजसंस्कारात् तत् ततो जीवनित्यता ॥६॥ अर्थात्-सर्प आदि प्राणियोंमें क्रोधादि प्रकृतियोंकी विशेषता जन्मसे ही देखी जाती है। वर्तमान देहने उनका कोई अभ्यास नहीं किया है। वे प्रकृतियाँ जन्मसे ही उनके साथ रहती हैं। यह पूर्व जन्मका संस्कार है; और यह पूर्व जन्म ही जीवकी नित्यता सिद्ध करता है। . __समर्थन–सर्पमें जन्मसे क्रोधकी विशेषता देखी जाती है, कबूतर जन्मसे अहिंसक होता है, और खटमल आदि जीवोंको पकड़ने पर दुःख और भयके मारे वे भागनेका प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार जन्मसे किसीमें प्रेमकी; किसीमें समता-भावकी, किसीमें निर्भयताकी, किसीमें गंभीरताकी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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