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________________ आत्मसिद्धि । २९ यह चिह्न उसमें सदा मौजूद रहता है— किसी समय इस चिह्नका उसमें नाश नहीं होता । घट, पट आदि जाण तु, तेथी तेने मान । जाणनार ते मान नहीं, कहिये केबुं ज्ञान ? ॥ ५५ ॥ घटादिसर्व जानासि अतस्तन्मन्यसे शिशो | तं न जानासि ज्ञातारं तद् ज्ञानं ब्रूहि कीदृशम् ॥५५ अर्थात् – तू स्वयं जिन घट-पट आदि पदार्थोंको जानता है तेरा विश्वास है कि वे हैं; परन्तु वास्तवमें जो उन घटपटादिका जाननेवाला है उस पर तेरा विश्वास नहीं, तेरे इस ज्ञानको क्या कहा जाय ? परम बुद्धि कृष देहमां, स्थूल देह मति अल्प | देह होय जो आतमा, घटे न आम विकल्प ॥५६॥ कृशे देहे घना बुद्धिरघना स्थूलविग्रहे । स्याद् देहो यदि आत्मैव नैवं तु घटना भवेत् ॥५६ अर्थात् - दुबले-पतले देहवालेकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण, और स्थूल देहवालेकी बुद्धि स्थूल देखने में आती है, सो यदि देह ही आत्मा होता तो इस प्रकारका विरोध दिखाई पड़नेका मौका न आता । जड चेतननो भिन्न छे, केवळ प्रगट खभाव । एकपणुं पामे नहीं, त्रणे काळ द्वयभाव ॥ ५७ ॥ केवलं भिन्न एवाऽस्ति स्वभावो जड-जीवयोः । कदापि न तयोरैक्यं द्वैतं कालत्रिके तयोः ॥ ५७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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