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श्रीमद राजचन्द्रप्रणीत
अर्थात् जिस वस्तुमें कभी जाननेकी शक्ति या स्वभाव नहीं होता वह जड़ है और जानना जिसका सदा स्वभाव है वह चैतन्य है। इस प्रकार जड़ और चेतन्य दोनोंका भिन्न भिन्न स्वभाव है; और वह स्वभाव कभी एक न होगा। दोनोंकी भिन्नता इस बातसे अनुभवमें आती है कि तीनों कालमें जड़ जड़ बना रहेगा और चैतन्य चैतन्य ।
समर्थन-तीर्थकर प्रभुका कहना है कि संसारमें लोगोंने जीवको चाहे जैसा कहा हो और वह चाहे जैसी स्थितिमें हो उसके सम्बन्धमें हमारी उदासीनता है। हमने तो उसका जैसा निराबाध स्वरूप जान पाया है उसे उसी प्रकार प्रकट किया है। हमने आत्माके जो लक्षण कहे हैं वे सब प्रकार निराबाध हैं। हमने उसे ऐसा ही जाना है, देखा है और स्पष्ट अनुभव किया है । वास्तवमें ऐसा ही आत्मा है।
आत्माका लक्षण 'समता है। जो आत्माकी असंख्य प्रदेशात्मक चैतन्य स्थिति है यही स्थिति इसकी एक-दो-तीन-चार-दश-असंख्यात समय पहले भी थी, वर्तमानमें है और भविष्यमें भी रहेगी। किसी भी कालमें इसके असंख्यात प्रदेशत्व, चेतनत्व, अरूपित्व आदि स्वभाव न नष्ट होंगे और न कम होंगे। इस प्रकार 'समता' लक्षण जिसमें पाया जाय वह जीव या आत्मा है।
पशु-पक्षी-मनुष्य आदिके देह तथा वृक्षादिमें जो कुछ रमणीयता दिखाई पड़ती है या जिसके द्वारा इनमें स्फूर्ति आती है-वे सुन्दर जान पड़ते हैं-वह 'रमणीयता' जीवका ही लक्षण है। इसके बिना सारा संसार शून्यके जैसा भासमान होने लगता है । यह 'रम्यता' जिसमें हो या जिसमें यह लक्षण-रूपसे घट जाय वह 'जीव' है।
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