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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
पाँचों ही इन्द्रियोंके ग्रहण किए हुए विषयोंको जो जानता है वही आत्मी है । और जो यह कहा गया है कि आत्माके बिना एक इन्द्रिय एक एक विषयको ग्रहण करती है वह उपचारसे कहा है ।
देह न जाणे तेहने, जाणे न इंद्रि प्राण । आत्मानी सत्तावडे, तेह प्रवर्ते जाण ॥ ५३ ॥
न तद् जानाति देहोऽयं नैव प्राणो न चेन्द्रियम् । सत्ता देहिनो देहे तत्प्रवृत्तिं निबोध रे ! ॥ ५३ ॥
अर्थात् आत्माको न देह जानता है, न इन्द्रियाँ जानती हैं और श्रासोच्छ्वास ही जानते हैं; किन्तु ये सब ही उल्टे आत्मा के सहयोग से अपनी अपनी प्रवृत्ति कर रहे हैं। समझो कि आत्माका यदि इनको सहयोग न मिले तो ये जड़ ही बन रहें ।
सर्व अवस्थाने विषे, न्यारो सदा जणाय । प्रगटरूप चैतन्यमय, ए एंधाणे सदाय ॥ ५४ ॥
योsवस्थासु समस्तासु ज्ञायते भेदभाक् सदा । चेतनतामयः स्पष्टः स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥ ५४ ॥
अर्थात् आत्मा जाग्रत, स्वम और निद्रावस्था में प्रवृत्ति करता हुआ भी इन अवस्थाओं से जुदा रहता है; और इनसे भिन्न दशामें उसका अस्तित्त्व बना रहता है । वह इन अवस्थाओंका जाननेवाला प्रकट चैतन्य - स्वरूप है । मतलब यह कि जानना उसका प्रकट स्वभाव है और
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