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________________ आत्मसिद्धि । २५ वळी जो आत्मा होय तो, जणाय ते नहीं केम ? जणाय जो ते होय तो; घट पट आदि जेम ॥४७॥ यदि स्याद् भेदवान् जीवोऽनुभूयेत कथं न हि ? | यदस्ति सकलं तत् तु ज्ञायते कच काचवत् ॥ ४७ अर्थात् — और इतने पर भी यह आत्मा जुदा माना जाय तो फिर वह जाननेमें क्यों नहीं आता ? जिस भाँति घट-पट आदि पदार्थ हैं और वे जाने जाते हैं उसी भाँति यदि आत्मा है तो वह जाननेमें क्यों नहीं आता ? माटे छे नहीं आतमा, मिथ्या मोक्षउपाय । ए अंतर्शकातणो, समजावो सदुपाय ॥ ४८ ॥ अरे तो नैव आत्माsस्ति ततो मुक्तिप्रथा वृथा । एनामाभ्यन्तरीं रेकामुत्कीलय प्रभो ! प्रभो ! ॥४८॥ अर्थात् - इस लिए यही कहना चाहिए कि आत्मा है ही नहीं, और जब आत्मा नहीं है तब उसके लिए मोक्ष प्राप्तिका उपाय करना भी निष्फल है । हृदयकी इन शंकाओंके दूर करनेका कोई उत्तम उपाय हो तो मुझे समझाइए - इनका समाधान हो सकता हो तो कृपा करके मुझे सन्तुष्ट कीजिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only · www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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