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आत्मसिद्धि ।
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वळी जो आत्मा होय तो, जणाय ते नहीं केम ? जणाय जो ते होय तो; घट पट आदि जेम ॥४७॥
यदि स्याद् भेदवान् जीवोऽनुभूयेत कथं न हि ? | यदस्ति सकलं तत् तु ज्ञायते कच काचवत् ॥ ४७
अर्थात् — और इतने पर भी यह आत्मा जुदा माना जाय तो फिर वह जाननेमें क्यों नहीं आता ? जिस भाँति घट-पट आदि पदार्थ हैं और वे जाने जाते हैं उसी भाँति यदि आत्मा है तो वह जाननेमें क्यों नहीं आता ?
माटे छे नहीं आतमा, मिथ्या मोक्षउपाय । ए अंतर्शकातणो, समजावो सदुपाय ॥ ४८ ॥
अरे तो नैव आत्माsस्ति ततो मुक्तिप्रथा वृथा । एनामाभ्यन्तरीं रेकामुत्कीलय प्रभो ! प्रभो ! ॥४८॥
अर्थात् - इस लिए यही कहना चाहिए कि आत्मा है ही नहीं, और जब आत्मा नहीं है तब उसके लिए मोक्ष प्राप्तिका उपाय करना भी निष्फल है । हृदयकी इन शंकाओंके दूर करनेका कोई उत्तम उपाय हो तो मुझे समझाइए - इनका समाधान हो सकता हो तो कृपा करके मुझे सन्तुष्ट कीजिए ।
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