SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत शिष्यकी शंका | पहले स्थानकके सम्बन्धमें शिष्य कहता हैनथी दृष्टिमां आवतो, नथी जणातुं रूप । बीजो पण अनुभव नहीं, तेथी न जीवखरूप ॥ ४५ अदृश्यत्वादरूपित्वाज्जीवो नास्त्येव भेदभाक् । अनुभूतेरगम्यत्वान्नृशङ्गत्येव केवलम् ॥ ४५ ॥ [ नृशङ्गत्येव भो गुरो ! ] अर्थात् — जीव न दृष्टिमें आता है, न उसका कोई रूप ही दिखाई देता है, और न इसी प्रकारके अन्य अनुभवोंसे उसका ज्ञान होता है। इस लिए जान पड़ता है कि जीवका कोई खरूप नहीं है - जीव ही नहीं है । अथवा देहज आतमा, अथवा इंद्रिय प्राण । मिथ्या जूदो मानवो, नहीं जूनुं एंधाण ॥ ४६ ॥ देह एव वा जीवोsस्ति प्राणरूपोऽथवा स च । इन्द्रियात्मा तथा मन्यो नैवं भिन्नो ह्यलक्षणः ॥ ४६ अर्थात् अथवा देह ही आत्मा है, इन्द्रियाँ ही आत्मा है, या श्वासोचास ही आत्मा है । मतलब यह कि ये सब देह रूप ही हैं । इस लिए आत्माको इनसे जुदा मानना मिथ्या है; क्योंकि उसके कोई ऐसे चिह्न नहीं दिखाई पड़ते जिससे कि वह जुदा समझा जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy