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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
शिष्यकी शंका |
पहले स्थानकके सम्बन्धमें शिष्य कहता हैनथी दृष्टिमां आवतो, नथी जणातुं रूप । बीजो पण अनुभव नहीं, तेथी न जीवखरूप ॥ ४५ अदृश्यत्वादरूपित्वाज्जीवो नास्त्येव भेदभाक् । अनुभूतेरगम्यत्वान्नृशङ्गत्येव केवलम् ॥ ४५ ॥ [ नृशङ्गत्येव भो गुरो ! ]
अर्थात् — जीव न दृष्टिमें आता है, न उसका कोई रूप ही दिखाई देता है, और न इसी प्रकारके अन्य अनुभवोंसे उसका ज्ञान होता है। इस लिए जान पड़ता है कि जीवका कोई खरूप नहीं है - जीव ही नहीं है ।
अथवा देहज आतमा, अथवा इंद्रिय प्राण । मिथ्या जूदो मानवो, नहीं जूनुं एंधाण ॥ ४६ ॥
देह एव वा जीवोsस्ति प्राणरूपोऽथवा स च । इन्द्रियात्मा तथा मन्यो नैवं भिन्नो ह्यलक्षणः ॥ ४६ अर्थात् अथवा देह ही आत्मा है, इन्द्रियाँ ही आत्मा है, या श्वासोचास ही आत्मा है । मतलब यह कि ये सब देह रूप ही हैं । इस लिए आत्माको इनसे जुदा मानना मिथ्या है; क्योंकि उसके कोई ऐसे चिह्न नहीं दिखाई पड़ते जिससे कि वह जुदा समझा जाय ।
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