________________
श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतआवे ज्यां एवी दशा, सद्गुरुबोध सुहाय । ते बोधे सुविचारणा, त्यां प्रगटे सुखदाय ॥ ४०॥
स्यादीदृशी दशा यत्र सद्गुरुबोधपूर्विका ।
सद्विचारःतयाऽऽविस्स्यात् सुखदोऽदुःखदो नृणाम् अर्थात्--ऐसी अवस्था होने पर ही सद्गुरुका उपदेश उपयोगी-कार्यकारी हो सकता है और इसी उपदेशसे परिमाणमें श्रेष्ठ विचार करनेकी योग्यता प्रकट होती है।
ज्यां प्रगटे सुविचारणा, त्यां प्रगटे निजज्ञान । जे ज्ञाने क्षय मोह थइ, पामे पद निर्वाण ॥४१॥
सद्विचारो भवेद् यत्र तत्राऽऽत्मत्वप्रकाशनम् ।
तेन मोहं क्षयं नीत्वा प्राप्नुयान्निवृतिपदम् ॥ ४१॥ अर्थात्-और जहाँ श्रेष्ठ विचार करनेकी योग्यता प्रकट होती है वहीं आत्म-ज्ञान प्रकट होता हैऔर इसी ज्ञानसे आत्मा मोहनीय कर्मका क्षय करके निर्वाण लाभ करता है।
उपजे ते सुविचारणा, मोक्षमार्ग समजाय । गुरु-शिष्यसंवादथी, भाऱ्या षट्पद् आंहि ॥४२॥
संभवेत् सद्विचारो यैः सुज्ञानं मुक्तिवम॑ च ।
तानि वक्ष्ये पदानि षट् संवादे गुरु-शिष्ययोः ॥४२ अर्थात्-जिससे श्रेष्ठ विचार करनेकी योग्यता उत्पन्न हो सके और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org