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आत्मसिद्धि ।
अन्तरेवं समालोच्य शोधयेत् सद्गुरोर्युजिम् । कार्यमात्मार्थमेकं तद् नापरा मानसी रुजा ॥ ३७ ॥ अर्थात् - इस प्रकार हृदयमें विचार कर सद्गुरुके समागम के लिए यत्न करना चाहिए; और मनमें केवल एक आत्म-हितकी इच्छा होनी चाहिए - मान-पूजादिक तथा रिद्धि-सिद्धि आदि किसी प्रकारकी इच्छा न होनी चाहिए - यह रोग है इसका न होना ही अच्छा है।
कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्षअभिलाष । भवे खेद, प्राणीदया, त्यां आत्मार्थनिवास ॥ ३८ ॥ उपशान्तिः कषायाणां निर्वाणे केवलं गृधिः ।
भवे खेदो दया सत्त्वे तत्राऽऽत्मार्थत्वसंगतिः ॥३८॥ अर्थात् — उस जीवमें आत्म-हितकी स्थिति हो सकती है कि जिसकी कषायें मन्द पड़ गई हों, जिसे एक मोक्ष-पदके सिवा किसी अन्य पदकी लालसा न हो और संसार पर जिसे दया हो ।
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दशा न एवी ज्यांसुधी, जीव लहे नहीं जोग । मोक्षमार्ग पामे नहीं, मटे न अंतरंग ॥ ३९ ॥
एतादृशीं दशां यावद् योग्यां जीवो लभेत न 1 मुक्तिमार्ग न प्राप्नोति तावच्चाऽस्त्यान्तरी रुजा ॥ ३९ ॥ अर्थात् जीव जब तक इस प्रकारकी योगावस्था प्राप्त न करले तब तक उसे मोक्ष मार्गकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती; और आत्म-नान्ति-रूप अनन्त दुःखका कारण अन्तरंग रोग भी नहीं मिट सकता ।
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