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________________ श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत मतार्थी जीव एषोऽपि स्वीयमानादिहेतुना । प्राप्नुयान्न परं तत्त्वमनधिकारिकोटिगः॥३१॥ अर्थात् –ये जीव भी मतके पक्षपाती हैं। क्योंकि जिस प्रकार ऊपर कहे हुए जीवोंको कुल-धर्मादिका पक्षपात है उसी प्रकार ये ज्ञानी गिने जानेके मानकी इच्छासे अपने शुष्क मतका आग्रह करते हैं। इस लिए ये भी परमार्थको प्राप्त नहीं हो सकते; और इसी कारण फिर ये उन अनधिकारी जीवोंमें गिने जाने लगते हैं जिनमें कि ज्ञानका कुछ परिणाम नहीं होता। नहीं कषाय उपशांतता, नहीं अंतर्वैराग्य । सरळपणुं न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य ॥३२॥ कषायोपशमो नैव नान्तर्विरक्तिमत् तथा । सरलत्वं न माध्यस्थ्यं तद् दौभाग्यं मतार्थिनः ॥३२ अर्थात् जिसकी क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायें नहीं घटी हैं-मन्द नहीं पड़ी हैं, जिसके अन्तरंगमें वैराग्य उत्पन्न नहीं हुआ है, जिसके आत्मामें गुण ग्रहण करने-रूप सरलता नहीं है, और इसी प्रकार जिसकी दृष्टि सत्यासत्यकी तुलना करनेके लिए पक्षपात रहित नहीं है वह मत-पक्षपाती जीव बड़ा ही अभागी है। अर्थात् उसका भाग्य ऐसा नहीं जो जन्म-जरा-मरणका नाश करनेवाले मोक्ष-मार्गको प्राप्त कर सके। लक्षण कह्यां मतार्थीनां, मतार्थ जावा काज । हवे कहुं आत्मार्थीनां, आत्म-अर्थ सुखसाज ॥३३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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