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आत्मसिद्धि।
मतार्थिलक्षणं प्रोक्तं मतार्थत्यागहेतवे।
आत्मार्थिलक्षणं वक्ष्येऽधुनाऽऽत्मसुखहेतवे ॥ ३३ ॥ अर्थात्-इस प्रकार मताग्रही जीवके लक्षण कहे गये । ये इस लिए कहे गये कि इन्हें समझ कर अन्य जन अपना मताग्रह छोड़ सकें । अब आत्मार्थीके लक्षण कहे जाते हैं। ये लक्षण आत्माके लिए अव्याबाधविघ्न-बाधा-रहित-सुखके साधन हैं।
आत्मार्थी मनुष्यके लक्षण ।
आत्मज्ञान त्यां मुनिपणुं, ते साचा गुरु होय । बाकी कुलगुरु कल्पना, आत्मार्थी जन जोय ॥३४॥
आत्मज्ञानं भवेद् यत्र तत्रैव गुरुता ऋता ।
कुलगुरोः कल्पना ह्यन्या एवमात्माथिमान् ना।। ३४ .. अर्थात्--जहाँ आत्म-ज्ञान होता है वहाँ मुनिपद होता है, आत्म-ज्ञानके बिना मुनिपद कभी नहीं हो सकता । आचारांग सूत्रमें कहा है कि "जं संमति पासह तं मोणंति पासह" अर्थात् जहाँ सम्यक्त्व-आत्म-ज्ञान-होता है वहीं मुनिपद होता है। मतलब यह है कि जिनमें आत्म-ज्ञान होता है वे ही सच्चे गुरु होते हैं; और जो आत्म-ज्ञानके न होने पर भी अपने कुलगुरुको सद्गुरु मानना है यह मात्र कल्पना है। आत्मार्थी जानता है कि इस कल्पना मात्रसे संसारका नाश नहीं हो सकता।
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