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आत्मसिद्धि।
अथवा निश्चयनय आहे मात्र शब्दनी माय । लोपे सद्यवहारने, साधनरहित धाय ॥ २९ ॥
यः शुष्कः शब्दमात्रेण मन्येत निश्चयं नयम् ।
सद्व्यवहारमालुम्पेद् गच्छेच्च हेतुहीनताम् ॥ २९ ॥ अर्थात्--अथवा जो 'समयसार' या 'योगवासिष्ठ के जैसे ग्रन्थोंकों पढ़ कर केवल कहने ( या दिखाने के ) लिए निश्चय-नयको ग्रहण करता है। परन्तु जिसके अन्तरंगको वह गुण छूभी नहीं जाता; और सद्गुरु, सचे शास्त्र तथा वैराग्य-विवेकादि यथार्थ व्यवहारको नष्ट करता है और इसी तरह अपनेको ज्ञानी समझ कर साधन रहित आचरण करता है
ज्ञानदशा पाम्यो नहीं, साधनदशा न कांह। पामे तेनी संग जे, ते बुडे भवमांहि ॥ ३०॥
ज्ञानावस्थां न यः प्राप्तस्तथा साधनसशाम् । कुर्वाणस्तेन संगं ना बुडेत् संसारसागरे ॥ ३० ॥ अर्थात्- ऐसा जीव ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता और इसी प्रकार वैराग्यादि साधनोंको प्राप्त नहीं कर पाता; और इसी कारण जो ऐसे जीवोंकी संगति करते हैं वे भी भवसागरमें डूब जाते हैं।
ए पण जीव मतार्थमा, निजमानादि काज। पामे नहीं परमार्थने, अनअधिकारीमांज ॥ ३१॥
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