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________________ १६ श्रीमदू राजचन्द्रप्रणीत हितकारी उपदेशको ग्रहण नहीं करता, और स्वयं सच्चे मुमुक्षु बननेके अभिमानके लिए कुगुरुके पास जाकर उनके प्रति अपनी बड़ी दृढ़ता जनाता है। देवादि गति भंगमां, जे समजे श्रुतज्ञान । माने निजमतवेषनो आग्रह मुक्तिनिदान ॥ २७॥ देवादिगतिभङ्गेषु जानीयाच्छुतज्ञानताम् । मन्यते निजवेषं यो मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥ २७॥ अर्थात्-नरकादि गतिके 'भंग' (विकल्प) आदिका स्वरूप जो किसी विशेष परमार्थके कारण कहा गया है उसके मतलबको न समझ कर उस भंगजालको ही श्रुतज्ञान समझता है तथा अपने मतका वेष धारण करने में ही मुक्तिका कारण मानता है; लघु खरूप न वृत्ति, ग्रयुं व्रत अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थने, लेवा लौकिक मान ॥२८॥ अप्राप्ते लक्षणे वृत्तेवृत्तिमत्त्वाभिमानिता। परमार्थं न विन्देद् यो लोकपूजार्थमात्मनः ॥ २८॥ अर्थात्-जो वृत्तिका ( त्याग-वृत्तिका या व्रतका ) स्वरूप तो समझता नहीं और यह अभिमान करता है कि मैं व्रती हूँ, और कभी परमार्थके उपदेशका योग मिल भी जाय तो संसारमें अपनी मान-मर्यादाके नष्ट हो जानेके भयसे अथवा यह समझ कर, कि वह पीछी न मिल. सकेगी, परमार्थको ग्रहण नहीं करता: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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