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श्रीमदू राजचन्द्रप्रणीत
हितकारी उपदेशको ग्रहण नहीं करता, और स्वयं सच्चे मुमुक्षु बननेके अभिमानके लिए कुगुरुके पास जाकर उनके प्रति अपनी बड़ी दृढ़ता जनाता है।
देवादि गति भंगमां, जे समजे श्रुतज्ञान । माने निजमतवेषनो आग्रह मुक्तिनिदान ॥ २७॥
देवादिगतिभङ्गेषु जानीयाच्छुतज्ञानताम् ।
मन्यते निजवेषं यो मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥ २७॥ अर्थात्-नरकादि गतिके 'भंग' (विकल्प) आदिका स्वरूप जो किसी विशेष परमार्थके कारण कहा गया है उसके मतलबको न समझ कर उस भंगजालको ही श्रुतज्ञान समझता है तथा अपने मतका वेष धारण करने में ही मुक्तिका कारण मानता है;
लघु खरूप न वृत्ति, ग्रयुं व्रत अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थने, लेवा लौकिक मान ॥२८॥
अप्राप्ते लक्षणे वृत्तेवृत्तिमत्त्वाभिमानिता।
परमार्थं न विन्देद् यो लोकपूजार्थमात्मनः ॥ २८॥ अर्थात्-जो वृत्तिका ( त्याग-वृत्तिका या व्रतका ) स्वरूप तो समझता नहीं और यह अभिमान करता है कि मैं व्रती हूँ, और कभी परमार्थके उपदेशका योग मिल भी जाय तो संसारमें अपनी मान-मर्यादाके नष्ट हो जानेके भयसे अथवा यह समझ कर, कि वह पीछी न मिल. सकेगी, परमार्थको ग्रहण नहीं करता:
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