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आत्मसिद्धि ।
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गुरु समझता है अथवा अपने कुल - धर्मके जैसे तैसे गुरुमें ही ममत्व-भाव रखता है;—
जे जिनदेहप्रमाणने, समवसरणादि सिद्धि । वर्णन समजे जिन्नुं, रोकि रहे निजबुद्धि ॥ २५॥ जिनस्य ऋद्धिं देहादिमानं व जिनवर्णनम् । मनुते, स्वीयबुद्धिं यस्तत्रैवाऽभिनिविशते ॥ २५ ॥
अर्थात् - जो जिन भगवानके शरीरादिके वर्णनको खास उन्हीं का वर्णन समझता है, और उन्हें अपने कुल परम्पराके देव होने के कारण अहंभाव - रूप कल्पित राग- वश उनके समवशरणादिका माहात्म्य गाता रह कर उसीमें अपनी बुद्धिको रोके रखता है; अर्थात् जिन भगवानका जो जानने योग्य परमार्थका कारण अन्तरंग स्वरूप है उसे नहीं जानता है और न उसके जानने का ही प्रयत्न करता है तथा मात्र समवशरणादिमें ही जिन भगवानका स्वरूप बतला कर अपने मताग्रह में ( मस्त ) रहता है;
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प्रत्यक्ष सद्गुरुयोगमां, वर्त्ते दृष्टि विमुख । असद्गुरुने दृढ करे, निजमानार्थे मुख्य ॥ २६ ॥ प्रत्यक्षसद्गुरोर्योगे कुर्याद् दृष्टिविमुखताम् । योsसद्गुरुं दृढीकुर्यान्निजमानाय मुख्यतः ॥ २६ ॥ अर्थात् ——कभी प्रत्यक्ष सद्गुरुका योग भी मिले तो उनकी दुराग्रह के नाश करनेवाली वाणीको सुन कर उससे उल्टे चलता है, अर्थात् उनके
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