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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीतमुमुक्षुर्यदि जीवः स्याजानातीमां विचारणाम् ।
मतार्थी यदि जीवः स्याज्जानीयाद् विपरीतताम्॥ अर्थात्--जो जीव मोक्षका इच्छुक होता है वह तो इस विनय-मार्गका विचार कर उसे समझ लेता है और जो मताग्रही होता है वह उसका उल्टा निश्चय करता है। मतलब यह कि इस विनय-मार्गका उपयोग या तो वह शिष्यादिके पाससे अपनी सेवा-सुश्रूषा कराने में करता है या कुगुरुमें सुगुरुका भ्रम करके उसका उपयोग करता है।
होय मतार्थी तेहने, थाय न आतमलक्ष । तेह मतार्थीलक्षणो, अहीं कह्यां निर्पक्ष ॥ २३ ॥ मतार्थी पुरुषो यः स्यान्नात्मान्वेषी स संभवेत् ।
तस्याऽत्र लक्षणं प्रोक्तं पक्षदोषविवर्जितम् ॥ २३ ॥ अर्थात्-जो मताग्रही होता है उसका आत्म-ज्ञानकी ओर लक्ष नहीं रहता। ऐसे ही मताग्रही लोगों के यहाँ पर पक्षपात रहित लक्षण कहे जाते हैं। बाह्यत्याग पण ज्ञान नहीं, ते माने गुरु सत्य । अथवा निजकुळधर्मना, ते गुरुमां ज ममत्व ॥२४॥
ज्ञानहीनं गुरुं सत्यं बाह्यत्यागपरायणम् ।
मन्येत, वा ममत्वं वै कुलधर्मगुरौ धरेत् ॥ २४ ॥ अर्थात्-जो केवल बाह्यसे त्यागीसा दिखाई पड़ता हो, पर जिसे आत्म-ज्ञान न हो, तथा अन्तरंग त्याग भी न हो, ऐसे गुरुको जो सच्चा
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