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आत्मसिद्धि।
और उनके गुरु अब तक छद्मस्थ-अल्पज्ञानी-ही हैं तो भी जो केवलज्ञानी हुए हैं वे अपने छद्मस्थ गुरुकी वैयावृत्य-सेवा-सुश्रूषा-करते हैं।
एवो मार्ग विनयतणो, भाख्यो श्रीवीतराग । मूळ हेतु ए मार्गनो, समजे कोइ सुभाग्य ॥२०॥ विनयस्येदृशो मार्गो भाषितः श्रीजिनेश्वरैः।
एतन्मार्गस्य मूलं तु कश्चिजानाति भाग्यवान् ॥२०॥ अर्थात्-जिन भगवानने विनयका मार्ग उक्त प्रकार कहा है। इस मार्गके मूल कारण आत्माका इसके द्वारा क्या उपकार होता है, इस बातको कोई ही भाग्यशाली--बुद्धिमान-अथवा आराधक जीव समझ पाता है।
असद्गुरु ए विनयनो, लाभ लहे जो कांइ। महामोहनीयकर्मथी, वुडे भवजळ मांहि ॥२१॥
यद्यसद्गुरुरेतस्य किञ्चिल्लाभं लभेत तु ।
महामोहवशान्मजेद् भवाम्भोधौ भयंकरे ॥२१॥ अर्थात्—ऊपर जो विनयका मार्ग बतलाया गया है उसे अपने शिष्योंके द्वारा करानेकी इच्छा करके-अपना वैयावृत्य करानेकी इच्छासे कोई कुगुरु अपनेमें सुगुरुकी कल्पना करे तो समझना चाहिए कि वह तीव्र मोहनीय कर्मका बन्ध कर भव-सागरमें डूबना चाहता है।
होय मुमुक्षु जीव ते, समजे एह विचार । होय मतार्थी जीव ते, अवळो ले निर्धार ॥ २२॥
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