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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
स्वछंद, मत आग्रह तजी, वर्त्ते सद्गुरुलक्ष | समकित तेने भाखियुं, कारण गणी प्रत्यक्ष ॥ १७॥
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वर्तनं सद्गुरुलक्ष्ये त्यक्त्वा स्वातन्त्र्यमात्मनः । मताग्रहं च सम्यक्त्वमुक्तं प्रत्यक्षकारणात् ॥ १७॥
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अर्थात्–स्वच्छन्दता तथा अपने मतका आग्रह छोड़ कर जो सद्गुरुके उपदेशके अनुसार चलते हैं उस प्रवृत्तिको सम्यक्त्वका प्रत्यक्ष कारण गिन कर ही वीतराग प्रभुने 'सम्यक्त्व ' कहा है ।
मानादिक शत्रु महा, निजछंदे न मराय । जातां सद्गुरुशरणमां, अल्प प्रयासे जाय ॥ १८ ॥ स्वातन्त्र्यान्न हि हन्यन्ते महामानादिशत्रवः । सद्गुरोः शरणे प्राप्ते नाशस्तेषां सुसाधनः ॥ १८ ॥
अर्थात् - मान और पूजा - सत्कारादिका लोभ आदि ( आत्माके ) बड़े भारी शत्रु हैं। अपनी समझके अनुसार चलनेसे ये नष्ट नहीं हो सकते; और सद्गुरुकी शरण जानेसे साधारण प्रयत्न से ही नष्ट हो जाते हैं ।
ज सद्गुरुउपदेशथी, पाम्यो केवळज्ञान ।
गुरु रह्या छद्मस्थ पण, विनय करे भगवान ॥ १९ ॥ यत्सद्गुरूपदेशे यः प्रापद् ज्ञानमपश्चिमम् । छाद्मस्थ्येऽपि गुरोस्तस्य वैयावृत्त्यं करोति सः ॥ १९ अर्थात् — जो सद्गुरुके उपदेश से स्वयं तो केवलज्ञानको प्राप्त हो गये
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